नितिन राजीव सिन्हा
कुछ अज़ीज़
कुछ दोस्त
थे,दिन वो
गुज़र गये..,
सुबह ओ
शाम की
क्या ख़ता
है..? वो
वक़्त की
पाबंद हैं
के उम्र
गुज़र गई
इक ज़िंदगी
यूँ बीत गई
मानो,वह
कुछ थी
ही नहीं..,
इक दरवाज़े
से दख़ल
हुई क्या
वह ज़िंदगी
थी..!जो ख़ाक
हुई वह
कायनात थी..?
न कोई सगा
था न कोई
बेगाना..,
इक जिस्म
ज़िंदगी थी
वही अपना
परवर दिगार
था..,इक
दरिया सा
था के,सैलाब
था आँसुओं
का फिर वही
बेगानियाँ थीं
गये हैं जो
दूर लौट न
सकेंगे कह
गये हैं लोग
कि मरने वाले
के लिये कोई
मरा नहीं करता
पर,कहते हैं हम
के,ज़िंदा हैं
जो उनकी
कोई परवाह
भी नहीं करता..,