नितिन राजीव सिन्हा
शायद सप्ताह के किसी एक दिन यह कार्यक्रम आया करता था लोग रेडियो ऑन कर अमीन सयानी के हवाले अपनी रूह कर दिया करते थे खुद उस दौर के संगीत के सुरों में गुम हो ज़ाया करते थे पायदान फ़िल्मी गीतों के तब अमीन सयानी तय किया करते थे वह अद्भुत क्षण होता था फ़िल्म इंडस्ट्री के दिग्गज भी पहले पायदान पर या दूसरे तीसरे पायदान कौन सा गीत कितने सप्ताह बजा इसका हिसाब रखने में मशगूल हुआ करते थे ..,
रचनात्मक विचारों का वह दौर ए दस्तूर कलाप्रियता को जीवन का संदर्भ मानकर चलता था तब हम बस्तर के सुरम्य वनों की हसीन वादियों में रहा करते थे कांकेर तब छोटा सा क़स्बा हुआ करता था जुगनुओं की जगमगाहट से भरी स्याह रातों में बिनाका गीत माला के सुर पत्तों के सरसराहट से भरे वातावरण को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे..,
जिस दौर को अमीन सयानी ने अपना नाम दिया है वह आवाज़ की जादूगरी का फ़लसफ़ा बन गया पचास,साठ और सत्तर के दशक के दौर की वह न भूल सकने वाला दास्ताँ बन गया खैर,ख़ुदा के दर पर सिर झुकाने वाले को जब खुदा का बुलावा आता है तो उसे उस सफ़र पर निकल जाना होता है सो,अमीन सयानी दुनिया से दूर जा चुके हैं अब न वो लौट कर आयेंगे न उनकी खनक भरी आवाज़ पर,उनका काम याद किया जायेगा..,
असरार उल हक़ के शेर हैं कि,-
छुप गये साज
ए हस्ति छेड कर
अब तो बस आवाज़
ही आवाज़ है..,