चेहरा बुझा बुझा सा दर्पण टूटा टूटा सा लगता है
अब जंगल से नहीं संसद से डर लगता है।।
इंसानियत मोहब्बत की चर्चा करने दो
मंदिर मस्जिद के मसलों से डर लगता है।।
टेसू क्यों न दहके अंगारों सा
मजहब सियासत सब बजारू सा लगता है।
चिंता किसे है भूखों गरीबों की
लाल किला भी जुमले बाजी करता है।
कितना ख़ौफ़ज़दा हो गया है चेहरा
आईना देखने में भी डर लगता है।
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रेखाएं खींचते खींचते
चेहरे पर
रेखाएं खिंच गई।
पेट, आंख अंदर
और अंतड़ियां
बाहर निकलती गई।
कागज की रेखाएं
तो मिट गई
पर
चेहरे पर
पड़ी रेखाएं
गहरी और गहरी
होती गईं
चेहरा अस्पष्ट
और
एक नक्शा था स्पष्ट।।
चेहरे को
जकड़ी रेखाएं
स्वतंत्रता पर
प्रश्न चिन्ह अंकित करती गईं
और
व्यवस्था को
रेखांकित करती गयीं।
यह सब
किसने किया?
कैसे हुआ?
यह जानने तक
सूर्य
पश्चिम में डूब चुका था।
काव्य,कला,संगीत की
गूँज नहीं
वन पांखियों का
कोलाहल नहीं
बस भूख पीड़ा और
तड़पन थी।
पसीने और
आंसुओं की शबनम थी।
धंसी आंखें
देख रही है
आस लिए
पूरब की ओर
सूरज के निकलने की
पुरवैया के हलचल की
परिंदों के कोलाहल की
गणेश कछवाहा रायगढ़ छत्तीसगढ़।