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आपातकाल में इंदिरा गांधी ने की लोकतंत्र की हत्या

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शिवा मिश्रा विशेष संवाददाता रायपुर (छ. ग.)

एमसीबी। आज भारतीय जनता पार्टी मनेन्द्रगढ़ -चिरमिरी -भरतपुर  के जिला मुख्यालय स्थित शीतला मंदिर के सामने  देश 

 में 25 जून आपातकाल काला दिवस के विरोध में भाजपा प्रदेश नेतृत्व के निर्देशानुसार गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमे कार्यक्रम के मुख्य वक्ता पूर्व बिधायक  व महिला मोर्चा की प्रदेश महामंत्री श्रीमती चम्पा देवी पावले जी एवं भाजपा जिलाध्यक्ष अनिल केशरवानी,लखन लाल श्रीवास्तव, दिनेश्वर मिश्रा, श्रीमती प्रतिमा पटवा, जयाकर, कार्यक्रम के संयोजक राहुल सिंग आदि ने सर्वप्रथम डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ,भारतमाता, पंडित दीनदयाल जी की छाया चित्र के समक्ष दीप प्रज्वलन कर  कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। साथ ही एलीडी के माध्यम से आपातकाल कि स्थिति को चित्रण के द्वारा आमजन को अवगत कराया गया।

वंही आज के कार्यक्रम मे भाजपा के दिनेश्वर मिश्रा ,पूर्व जिलाध्यक्ष लखन लाल श्रीवास्तव, आलोक जायसवाल व कार्यक्रम् के संयोजक राहुल सिंग ने देश मे लगे आपात काल की याद मे तरह- तरह की यातनाये कांग्रेस सरकार द्वारा दी गई जिसे सभी ने अपने- अपने  रूप मे जनता को मंच के माध्यम से समझाय और इस अवसर पर एमसीबी जिला मे आपतकाल के दौरान मनेन्द्रगढ़ मे कांग्रेस सरकार  के कुचक्र चला आपातकाल मे जेल भेज दिया गया था ऐसे लोगो स्व.श्री टेकचंद जैन, स्व. श्री शशिभूषण अग्रवाल,स्व.श्री रंगलाल अग्रवाल,स्व.श्री सुन्दर लाल् श्रीवास्तव,स्व. राम सिंग के आवास पहुंच कर उनके परिजनों को एवं अधिवक्ता श्री मधुसूदन तिवारी जी का भाजपा जिलाध्यक्ष अनिल केशरवानी के नेतृत्व मे आवास पहुंच कर साल व श्रीफल से सम्मानित किया गया। 

      इस अवसर पर आज के आपातकाल की याद मे मुख्य पूर्व विधायक व पूर्व संसदीय सचिव  श्रीमती चम्पा देवी पावले  ने कही  की वर्ष 1975 में आज ही के दिन इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूरे देश में आपातकाल लागू कर लोकतंत्र की हत्या कर दी थी। देशवासियों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और असंख्य लोगों को जेल में डाल दिया गया था। 21 महीना का ये आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है तथा कांग्रेस की दमनकारी नीतियों,सत्ता पिपाशा व तानाशाही मानसिकता ने 25 जून 1975 को आपातकाल लगाकर भारतीय लोकतंत्र के ऊपर कभी ना मिटने वाला धब्बा लगाया था।

रातों रात लाखों निरअपराध लोगों को जेलों में ठूँस दिया,प्रेस की आज़ादी पर ताला लगा दिया,लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी छीन ली। देशहित से ऊपर एक परिवार एक व्यक्ति के अहंकार को रखा गया।आपातकाल के विरुद्ध लाखों लोगों ने आंदोलन किया था। देशभर में युवाओं, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तारियां देनी पड़ी थीं। देश आपातकाल के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले और यातनाएँ सह कर कांग्रेस की दमनकारी नीतियों का मुखर विरोध करने वाले लोकतंत्र के सभी प्रहरियों के प्रति अपनी कृतज्ञता समर्पित करता है।आपातकाल के विरुद्ध उठी हर आवाज़ को मैं नमन करती हूँ।

  तथा उक्त कार्यक्रम को भाजपा जिलाध्यक्ष अनिल केशरवानी ने भी मंच से कहा कि

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 में उस समय एक काला अध्याय जुड़ गया, देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल थोप दिया। सियासी बवंडर, भीषण राजनीतिक विरोध और कोर्ट के आदेश के चलते इंदिरा गांधी अलग-थलग पड़ गईं। ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने उनको देश में आंतरिक आपातकाल घोषित करने की सलाह दी। 

 

24 जून 1975 की पूरी रात इंदिरा गांधी सोईं नहीं थीं। वो बैचेनी से कभी फाइलों को पढतीं तो कभी टहलने लगती थीं। पौ फटते हीं उन्होंने अपने नीजि सहायक आर.के.धवन से कहा कि सिद्धार्थ (सिद्धार्थ शंकर रे) को फोन लगाओ और उसे तुरंत आने को कहो। उन दिनों सिद्धार्थ शंकर रे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे और दिल्ली प्रवास के दौरान बंगाल भवन में रूके हुए थे। उन दिनों रे की गिनती इंदिरा गांधी के ईर्दगिर्द रहनेवाले कुछ विश्वस्त लोगों में हुआ करती थी, जो समय समय पर उन्हें कानूनी सलाह दिया करते थे।

 

अनुभवी बैरिस्टर रे समझ गए कि इतनी सुबह बुलाने का मतलब मामला गंभीर है। इंदिरा ने चाय मंगवाया और चाय पीते पीते देश के हालात पर बातें करने लगीं। उन्होंने देश के बिगडते हालात और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन पर चिंता जताई और कहा कि विपक्ष जानबूझकर उन्हें बदनाम करने पर लगा है। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के उस फैसले का भी जिक्र किया जिसमें उन्हें कसूरवार ठहराया गया था। बातों हीं बातों में वो एकाएक उत्तेजित होकर कहती हैं कि सिद्धार्थ अब कडे फैसले लेने का वक्त आ गया है। विपक्ष की नाजायज मांग पर हमें झुकना नहीं चाहिए बल्कि उनका डटकर मुकाबला करना होगा, चाहे इसके लिए कानून को भी क्यों न बदलना पडे।तुम क्या सुझाव देते आप ?? जो भी करना है आज और तुरंत निर्णय करना है।

 

        सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा से दरख्वास्त किया कि मुझे कानून की किताब पढ़ने के लिए कुछ घंटे की मोहलत दें। रे बंगाल भवन लौट गए और फिर दो घंटे बाद वे इंदिरा गांधी के आवास 01 सफदरजंग रोड पहुँचें। इंदिरा उनका बेसब्री से इंतजार कर रहीं थी। उन्होंने बिना भूमिका बाँधे कहा कि इन सब परेशानियों से बचने का एकमात्र उपाय देश में आपातकाल लागू करना है। इंदिरा गांधी को रे का ये विचार जमा और उन्होंने तत्काल इसके लिए पेपर तैयार करवाना शुरू कर दिया। योजना को गुपचुप तरीके से लागू करने की योजना बनाई गई, जिसमें उनके कुछ खास विश्वस्त लोग हीं शामिल थे।

 

राष्ट्रपति की मुहर 

शाम पाँच बजे इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद से मिलने राष्ट्रपति भवन पहुँचीं और उन्हें विस्तृत रूप से इस विषय पर जानकारी दी गई।राष्ट्रपति फखरुद्दीन आपातकाल लागू करने वाले लेटर पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो गए। 25 जून 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने रात के करीब साढे ग्यारह बजे उनके पास आपातकाल के घोषणा वाला कागज पहुंचा और उन्होंने बिना देरी किए इस पर साइन कर दिया। प्रधानमंत्री की सलाह पर उस मसौदे पर मुहर लगाते हुए देश में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित कर दिया। अभी तक इस बात की जानकारी कुछ चुनींदे लोगों को छोडकर किसी के पास नहीं थी, यहाँ तक की उनके मंत्रिमंडल को भी नहीं। दरअसल इंदिरा को डर था कि अमेरिका की गुप्तचर ऐजेंसी सीआईए कहीं उनका तख्ता न पलट दे। लोकतंत्र को निलंबित कर दिया गया। संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रधानमंत्री की सलाह पर वह हर छह महीने बाद 1977 तक आपातकाल की अवधि बढ़ाते रहे। इसमें संजय गांधी का भी प्रभाव माना जाता है। सिद्धार्थ शंकर ने इमरजेंसी लगाने संबंधी मसौदे को तैयार किया था।

 

26 जून 1975 की सुबह इंदिरा ने कैबिनेट की बैठक बुलाई और उसमें उन्होंने अपने फैसले की जानकारी दी।सभी भौचक रह गए थे मगर ताकतवर इंदिरा गांधी के सामने जुबान खोलने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी।कैबिनेट की बैठक के बाद इंदिरा गांधी ने देश के नाम संदेश दिया और कहा कि देश में आपातकाल लागू कर दिया गया है।

 

विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां : आपातकाल लगते हीं विपक्षी नेताओं और आंदोलनरत कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी शुरू हो गई।सरकार ने पूरे देश को एक बड़े जेलखाने में तब्दील कर दिया था। हाईकोर्ट के फैसले के बाद जेपी की अगुवाई में देश भर में सरकार विरोधी प्रर्दशन होने लगे थे, यद्यपि ये पहले से हीं जारी थे मगर हाईकोर्ट के आदेश ने आग में घी डालने का काम किया था।बिहार और गुजरात में शुरू हुए छात्रों के आंदोलन में आम लोग जुडते चले जा रहे थे। 24 जून 1975 को सुप्रीमकोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगन आदेश तो दिया लेकिन ये पूर्ण स्थगन आदेश न होकर आंशिक स्थगन आदेश था।जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला दिया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्रवाई में तो भाग ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं। यानी सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के मुताबिक इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता चालू रह सकती है।

सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी।जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनके इस्तीफे की मांग की।उस रैली में जेपी द्वारा कहा गया रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है।यह नारा था "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"जेपी ने कहा अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करें।

जेपी के इसी बयान को आधार बना कर आपातकाल लागू करने का फैसला लिया गया।इंदिरा गांधी ने अपने संदेश में कहा कि "एक जना सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है।इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला जरूरी हो गया था।" आपातकाल लागू होने के बाद से विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गई। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, अशोक मेहता, जार्ज फर्नांडिस, मधु दंडवते, मधु लियमें, सुब्रमण्यम स्वामी, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव समेत सैकड़ों विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। मीडिया पर लगाम लगाने के लिए सेंसरशिप लागू किया गया। विभिन्न अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई।अखबार को क्या छापना है ये सरकार तय करती थी। रेडियो पर प्रसारित होनेवाले बुलेटिन्स को प्रसारण से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से अप्रूव कराना पडता था।

 

ऐसे लिखी गई पटकथा :

राजनीतिक असंतोष :  1973-75 के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ देश भर में राजनीतिक असंतोष उभरा। गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और जेपी का संपूर्ण क्रांति का नारा उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।

 

नवनिर्माण आंदोलन (1973-74)  आर्थिक संकट और सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्रों और मध्य वर्ग के उस आंदोलन से मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। केंद्र सरकार को राज्य विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

 

संपूर्ण क्रांति:* मार्च-अप्रैल, 1974 में बिहार के छात्र आंदोलन का जयप्रकाश नारायण ने समर्थन किया। उन्होंने पटना में संपूर्ण क्रांति का नारा देते हुए छात्रों, किसानों और श्रम संगठनों से र्अंहसक तरीके से भारतीय समाज का रुपांतरण करने का आह्वान किया। एक महीने बाद देश की सबसे बड़ी रेलवे यूनियन राष्ट्रव्यापी हड़ताल पर चली गई। इंदिरा सरकार ने निर्मम तरीके से इसे कुचला। इससे सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ा। 1966 से सत्ता में काबिज इंदिरा के खिलाफ इस अवधि तक लोकसभा में 10 अविश्वास प्रस्ताव पेश किए गए।

 

ऐतिहासिक फैसला : 1971 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के नेता राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे।सोशलिस्ट पार्टी से उम्मीदवार राजनारायण इस बात से पूरे आश्वस्त थे कि वे हीं चुनाव जीतेंगे। उनके अति उत्साही समर्थकों ने काउंटिंग खत्म होने के पहले हीं जश्न मनाना शुरू कर दिया था, मगर जब परिणाम घोषित हुआ तो इंदिरा गांधी ने एक लाख वोट से राजनारायण को हरा दिया। ये हार राजनारायण पचा नहीं पाए थे और उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के खिलाफ़ एक जनहित याचिका दायर किया। कोर्ट में डेट पर डेट पडते रहे, मगर जब ये केस जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के टेबल पर आया तो सुनवाई तेजी से होने लगी।

 

18 मार्च 1975 को जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का आदेश दिया। भारत के इतिहास में ये पहला मौका था जब किसी मुकदमे में प्रधानमंत्री को अदालत में पेश होना था।इंदिरा गांधी अदालत में पेश हुईं और उन्हें पाँच घंटों तक सवालों के जवाब देने पडे थे। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।अदालत से फैसले की तारीख 12 जून 1975 तय हुआ।

 

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहनलाल सिन्हा ने फैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी को दोषी पाया। रायबरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध ठहराया। उनकी लोकसभा सीट रिक्त घोषित कर दी गई और उन पर अगले छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई। कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले छह सालों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लडने के अयोग्य ठहरा दिया गया। हालांकि वोटरों को रिश्वत देने और चुनाव धांधली जैसे गंभीर आरोपों से मुक्त कर दिया गया।

इस बीच सत्तापक्ष की तरफ से जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की खूब कोशिशें हुईं मगर जस्टिस सिन्हा कोई और मिट्टी के बने थे। उन्होंने हर प्रलोभन को नकार दिया।

 

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार इंदिरा गांधी को चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग का दोषी पाया गया।जन प्रतिनिधित्व कानून में इनका इस्तेमाल भी चुनाव कार्यों के लिए करना गैरकानूनी था। इन्हीं दो मुद्दों को आधार बनाकर जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा के लिए हुआ चुनाव निरस्त कर दिया। साथ हीं जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले पर बीस दिन का स्थगन आदेश दे दिया।

 

इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले पर देश में हंगामा मच गया। विपक्ष ने मांग रखी कि इंदिरा गांधी तत्काल इस्तीफ़ा दें। हाईकोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस की एक बडी बैठक आहूत की गई, जिसमें आगे की रणनीति पर चर्चा होनी थी।लोग अपने अपने विचार रख रहें थे तभी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ ने इंदिरा गांधी के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि क्यों न जब तक कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में नहीं आता वो कांग्रेस अध्यक्ष बन बन जाएं और मैं प्रधानमंत्री। तभी संजय गांधी अपनी मां को कहते हैं कि हम सुप्रीमकोर्ट में अपील करेंगे।

 

इंदिरा गांधी ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई

 

24 जून 1975 को जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर ने हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद के रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया गया लेकिन प्रधानमंत्री पद सुरक्षित रहा। अगले दिन जेपी ने दिल्ली में बड़ी रैली कर कहा कि पुलिस अधिकारी अनैतिक सरकारी आदेश न मानें। इसे अशांति भड़काने के रूप में देखा गया।

 

हाईकोर्ट के फैसले के बाद जेपी की अगुवाई में देश भर में सरकार विरोधी प्रर्दशन होने लगे थे, यद्यपि ये पहले से हीं जारी थे मगर हाईकोर्ट के आदेश ने आग में घी डालने का काम किया था। बिहार और गुजरात में शुरू हुए छात्रों के आंदोलन में आम लोग जुडते चले जा रहे थे। 24 जून 1975 को सुप्रीमकोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगन आदेश तो दिया लेकिन ये पूर्ण स्थगन आदेश न होकर आंशिक स्थगन आदेश था। जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला दिया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्रवाई में तो भाग ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं। यानी सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के मुताबिक इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता चालू रह सकती है।

 

सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी।जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनके इस्तीफे की मांग की।उस रैली में जेपी द्वारा कहा गया रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है।यह नारा था "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"जेपी ने कहा अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करें।

 

जेपी के इसी बयान को आधार बना कर आपातकाल लागू करने का फैसला लिया गया। इंदिरा गांधी ने अपने संदेश में कहा कि "एक जन सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है। इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला जरूरी हो गया था।"

 

मीसा: डीआईआर कानून का खूलेआम दुरूपयोग हो रहा था।उस दौरान तकरीबन एक लाख लोग इस काले कानून के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए थे।कई मीसाबंदियों ने अपने अपने राज्य के हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी लेकिन सभी स्थानों पर सरकार ने एक जैसा जवाब दिया कि आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित हैं। इसलिए किसी भी बंदी को ऐसी याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है।जिन हाइकोर्टों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाओं के पक्ष में निर्णय दिए,सरकार ने उनके विरुद्ध सुप्रीमकोर्ट में अपील की, बल्कि उसने इन याचिकाओं के पक्ष में फैसला देनेवाले न्यायाधीशों को दंडित भी किया।

 

जब आपातकाल के दौरान फ्रीडम ऑफ स्पीच और प्रेस कांग्रेस और इंदिरा गांधी द्वारा पूरी तरह से बंद कर गया

 

स्टालिन के रूस में रहने के बाद दुनिया में कहीं भी बोलने और प्रेस की स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा हमला इंदिरा गांधी के तहत भारत में हुआ था। देश में उनके द्वारा लगाए गए आपातकाल के परिणामस्वरूप सैकड़ों पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था, लोगों को सरकार के खिलाफ लिखने के लिए गिरफ्तार किया गया था और स्वतंत्र प्रेस गैर-मौजूद था।

 

1975 में देश में लागू हुए आपातकाल को शायद ही कोई भूला पाए*

 

आपातकाल के दौरान विरोध करने पर बाबू लाल मानव को 10 अगस्त 1975 को उनके गांव करंडा से पुलिस ने गिरफ्तार कर जिला जेल में डाल दिया। छह माह तक तो बिना मुकदमा ही जेल में बंद रहे। करीब डेढ़ वर्ष तक परिवार के किसी भी सदस्य से मिलने तक की अनुमति नहीं थी। इतना ही नहीं छह जून 1976 को राशन की जांच की मांग को लेकर जेल में अनशन पर बैठ गए तो जेलर अफजल अंसारी ने मार पीट कर पसली तक तोड़ डाली।

 

 

आपातकाल पुलिसिया कहर और जनता

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 में उस समय एक काला अध्याय जुड़ गया, जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक शिष्टाचार तथा सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल थोप दिया.

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने आम लोगों पर बरपाया था कहर

 

इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर प्रताड़ना दी गयी थी। प्रसिद्ध गायक  किशोर कुमार को कांग्रेस की रैली में सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों को गाने के माध्यम से कहा गया, जिसे किशोर कुमार ने इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि मैं अपनी मर्जी से गाता हूँ। संजय गांधी के आदेश पर सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय ने रेडियो पर किशोर कुमार का गाना बजना बंद कर दिया। उन दिनों एक फिल्म बनी थी किस्सा कुर्सी का जिसे जनता पार्टी सांसद अमृत लाल नाहटा ने बनाई थी। कहा गया कि ये फिल्म संजय गांधी के ऊपर बनाई गई है। फिल्म के निगेटिव को जब्त कर जला दिया गया। गुलजार की फिल्म "आँधी" का किस्सा तो जगजाहिर है। कई लोगों का ये आरोप था कि ये इंदिरा गांधी की जिंदगी पर आधारित थी और इमेरजेंसी के दौरान बनीं थी। प्रेस प्रतिबंधित कर दिया गया था। संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा था।

आपातकाल में इंदिरा गांधी ने की लोकतंत्र की हत्या

प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष जीवन भर मुकदमा नहीं चलाने के लिए संविधान संशोधन करने की कोशिश की गई।

 

संविधान के 42वें संशोधन के जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर कर सरकार के तीनों अंगों का बैलेंस बिगाड़ने का प्रयास किया गया।

 

संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया और आपातकाल के पहले हफ्ते में 15 हजार लोगों को बंदी बनाया गया।

 

1976 के जनवरी में अनुच्छेद 19 को निलंबित कर अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी भी छीन ली गई।

 

रासुका में 29 जून 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार खत्म कर दिया गया।

 

16 जुलाई 1975 को नजरबंदियों के लिए कोर्ट में अपील पर रोक के साथ जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया।

 

आपातकाल में न अपील न दलील और न कोई वकील

27 अक्टूबर की रात उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के थानों, कोतवाली, डीएम ऑफिस, आवास आदि पर सरकार विरोधी पोस्टर चिपकाए। इसमें एक साथी पकड़ा गया। उसकी मुखबिरी पर पुलिस 28 अक्टूबर को सहसवानी टोला स्थित मकान पर पहुंची। तत्कालीन कोतवाल हाकिम राय से बिना दरवाजा खटखटाए घर में दाखिल होने पर तीखी बहस हुई, लेकिन उनके हाथ सरकार विरोधी नारे लिखे पोस्टरों का बंडल लग गया था। उन्होंने गिरफ्तार कर लिया।

 

आपातकाल के दौरान एक लोकप्रिय नारा था आपातकाल के तीन दलाल 

 संजय ,विद्या, बंसीलाल

1967 और 1971 के बीच, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ ही संसद में भारी बहुमत को अपने नियंत्रण में कर लिया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बजाय, प्रधानमंत्री के सचिवालय के भीतर ही केंद्र सरकार की शक्ति को केंद्रित किया गया। सचिवालय के निर्वाचित सदस्यों को उन्होंने एक खतरे के रूप में देखा।

 

आपातकाल पुलिसिया कहर और संघ

 

इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी नीतियों, भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा और सामाजिक अव्यवस्था के विरुद्ध सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘समग्र क्रांति आंदोलन’ चल रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्ण समर्थन मिल जाने से यह आंदोलन एक शक्तिशाली, संगठित देशव्यापी आंदोलन बन गया। लाठीचार्ज, आंसू गैस, पुलिस हिरासत में अमानवीय अत्याचार, इत्यादि पुलिसिया कहर ने अपनी सारी हदें पार कर दी। स्वयं इंदिरा गाँधी द्वारा दिए जा रहे सीधे आदेशों से बने हिंसक तानाशाही के माहौल को सत्ता प्रायोजित आतंकवाद कहने में कोई भी अतिश्योक्ति नहीं होगी. सत्ता प्रायोजित आतंकवाद को समाप्त करने के लिए संघ द्वारा संचालित किया गया। सफल भूमिगत आन्दोलन इतिहास का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ बन गया. सत्ता के इशारे पर बेकसूर जनता पर जुल्म ढा रही पुलिस की नजरों से बचकर भूमिगत आन्दोलन का सञ्चालन करना कितना कठिन हुआ होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है आज के कार्यक्रम मे 

रामधुन जायसवाल, आशीष मजूमदार , अजय विश्वकर्मा , धर्मेंदपटवा, संजय गुप्ता, प्रदीप वर्मा,रामलखन शर्मा, तुलसी पाठक, अजमुद्दीन अंसारी, जमील साह ,मोमिन , जेके सिंग, चंद्रशेखर गुरूजी,ललन शुक्ला, हीरा लाल रजक,दिलीप नायर,सुशील सोनी,किशन शाह,अर्जुन सोनी,प्रमोद बंसल,आनंद ताम्रकार, रामचरित, गंगा यादव, श्रीमती श्यामा सेन,सुनैना विश्वकर्मा, उर्मिला राव, कोमल पटेल,पूजा घोषाल, अंजना विश्वकर्मा,

कला बाई, स्याम सिंह, परवीन सिंह,अलका विष्वकर्मा,मीनू सिंह,नीतू मंहारे,रीना वर्मा कमला सोनी,शुशीला सिंग सहित अन्य भारतीय जनता पार्टी के पदाधिकारी व  कार्यकर्तागण उपस्थित थे। उक्त कार्यक्रम का  आभार महेंद्रपाल ने व्यक्त  किया |

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