नितिन राजीव सिन्हा
क्या अश्क़
बुझा लेंगे
दरिया में
लगी हुई
आग..!!!
ये तो दिल्ली
है कई बार
बसी कई
मौक़ों पर
उजड़ी है
इक माचिस
की तिल्ली ने
भभकना सीख
लिया है के,
ये दिल्ली है
सीने में दर्द
सहेजी है
उजड़ी है
बस्ती इंसानों
की बन बसी
है ख़ून से सनी
गलियों की दास्ताँ
बन बस्तियों से
गुज़री है..,
क्या यही
हस्ति है..?
के,दिल्ली
उजड़ती है
बार बार
बसती है..,
लगी है आग
के यमुना अब,
जलती है
कल फ़ख़्र
था मुझे
मेरी दिल्ली
पर आज
लाशें गिनता
हूँ बे वजह
हुई मौतों पर
शीश शर्म
से झुकाता
हूँ,देख
तख़्त ओ
ताज तेरी
दास्ताँ तू..,
ट्रम्प के
आगे सिर
झुकाता है
पर,दिल्ली
है कि शान
में मेहमाँ के
सिर पर कफ़न
बाँध रास्तों से
यूँ गुज़रती है
मानों मौत के
अफ़साने
आये हैं तो
आयें कुछ
जानें जाती
हैं तो..,
पर,परवाह
किसे है..?
ये,तो दिल्ली
है लिखते हैं
जाँ निसार
अख़्तर के,
दिल्ली कहाँ
गई तीरे कूचों
की रौनक़ें
गलियों से
सर झुका
कर गुज़रने
लगा हूँ मैं..,