नितिन राजीव सिन्हा
हैरान हूँ मैं
के,जिस्म
से ढकी हुई
सी है नारी की
कथा..,
व्यथा
की जब बात
चली तो,
बे लिबास
इक औरत हुई
मरी तो उसकी
लज्जा थी जो,
वर्षों से नारी
के जिस्म से
लिपटी थी
अपनी तस्वीर
जिसने बनाई
ख़ुद को आइने
के हवाले कर
आई..,
इक
आईना क्या
देखा पूरी
कायनात
देखी..,
जो,गुज़र
गई उस
लम्हे की
सदाक़त ये
हुई कि स्त्री
न जिस्म हुई
न कोई बाज़ार
हुई वह कहीं
माँ हुई के,
शक्ति के
उपासना की
वजह हुई..,
ये आईने
न दे सकेंगे
तेरे हुस्न को
ख़बर कि शाम
जवाँ हुई रूत
बियावान हुई..,
“ये,आँखों में
क़ैद हुई और
शाम ज़रा
नादाँ हुई..,”