कांपते हैं
हाथ..,
जब लिखता हूँ
परिंदों की बात
उनकी उड़ान की
वो सुबह वो,
शाम का साथ
कलरव करती
बियावान में
ढलती शाम
की वो बात
चहचहाते परिंदों
की आसमाँ पर
मँडराते उस
नज़ारे की बात
जो खो गये
हैं क्योंकि मिट्टियों
के घर ढह गये
कबेलू वाले
मकाँ उनसे
दूर हो गये
हैं ताल तलैया
समतल हो
गये हैं
खेत ज़हरीले
हुए हैं पंछी
नदारद हुए
हैं इंसा की
हसरतों ने
बुलंदियाँ छुआ
है पर,परिंदों ने
दम तोड़ा है
वाक़िफ़ कहाँ
है ज़माना
उनकी उड़ानों
से वो जिनके
उड़ान के उनके
हौसलों की दाद
में बादल फट
पड़ते थे आँसू
उनकी ख़ुशी
के बारिश
बन बरस
पड़ते थे
आसमाँ से
उनका नाता
टूटा है
इंसा के
लिये वह
नज़ारा दुभर
हुआ है..,
[नितिन राजीव सिन्हा]