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शिक्षा निजी संस्थानों में और नौकरी सरकारी… [मजबूरी या मानसिकता] "सरकारी स्कूल नही तो सरकारी नौकरी नही"

आज के आधुनिकता के दौर प्रतिस्पर्धाओं का दौर हो गया है। आगे बढनें की होड में नित नए लुभावने व आकर्षक प्रलोभन देकर व्यापार किया जा रहा है और साथ षिक्षा बनाम प्रतियोगिता बन कर रह गया है। हर अभिभाव अपने बच्चों कम से कम समय में परिपक्वता लाने के लिए जो भी भर्सक प्रयास हो सकता है करते की कोषिष करते हैं। इसका कारण यह भी है कि आज के भागमभाग के माहौल में किसी के भी पास समय का अभाव है। किसी पूर्ति अभिभावक पैसे देकर पूरी करने की कोषिष करते हैं और अपनी जिम्मेदारियों को दूसरों पर लादकर बेहतर परिणाम की कल्पना करते हैं।
मानसिकता तो यह है कि अभिवावक अपने बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा निजी स्कूलों में दिलाना चाहता है जिसके लिये वह हर मोटी रकम देने को तैयार रहता है जबकि शासकीय स्कूलों में 6से14वर्ष तक कि बुनियादी शिक्षा निशुल्क प्रदान की जाती है।
कारण समझ से परे है ’शासन की ये एक एक ऐसी योजना जिसका लाभ कोई भी लेना नही चाहता इसके अलावा शासन की सभी योजना आमजनों को फबती हैं फिर वो चाहे राशन कार्ड हो या पेंषन हो या आयुष्मान भारत बीमा’ । प्रशासनिक अधिकारी हो या सत्ताधारी जनप्रतिनिधि चाहे लाख घोषणा कर ले लेकिन आज भी लोगो की पहली प्राथमिकता निजी स्कूल ही हैं। लोगों को भरोसा निजी स्कूलों पर ज्यादा है क्यों ि कवे जानते हैं कि शासकीय षिक्षकों के रवैये से वाकिफ होते हैं जिसका फायदा निजि स्कूल संचालक भरपूर फायदा उठानें का कार्य कर रहे हैं।
अभिभावक बच्चों को बुनियादी शिक्षा निजी स्कूलों से दिलवाना चाहते है और उच्च शिक्षा के लिये शासकीय महाविद्यालयो के लाइन में लगे नजर आते है यह बात भी मेरे समझ से परे । ’सरकारी कालेज में जाओ सरकारी नौकरी पाओ’ का भी एक नारा होना चाहिए।
निजि शिक्षा लोगों की मानसिकत बन कर रह गई है। या तो प्राइवेट स्कूल में या फिर एकलव्य – जवाहर नवोदय विद्यालय में। मुझे यह बात समझ नही आती की लोग शासन की नवोदय विद्यालय -एकलव्य एवं शासकीय महाविद्यालय में अपने बच्चों का दाखिला कराने बड़े बड़े सिफारिस लेकर आते है ! ’जिसको चाहिये नवोदय उसकी पात्रता सरकारी स्कूल में’ लेकिन जब उसी तरह के शासकीय स्कूल के शिक्षा को नकारा बताते हुए निजी विधालय को पहली प्राथमिकता क्यो देते है ।
शासकीय स्कूलों में दाखिला दिलाने शासन बच्चों को षिक्षा का अधिकारी कानून के तहत 14 वर्षो तक निशुल्क शिक्षा , निशुल्क शिक्षा सामग्री , छात्रवित्ति , तक मुहैया करवा रही । लेकिन आज भी दूरस्थ जंगली इलाको को छोड़ शहरी या ग्रामीण क्षेत्रो के शासकीय स्कूलों में दाखिला आबादी के संख्या के शून्य बराबर होती है । ’खिचड़ी खाओ सरकारी कालेज में दाखिल हो जाओ’

शिक्षा के स्तर में सुधार लाने के लिये ’1 अप्रैल 2010 को “शिक्षा का अधिकार कानून 2009” पूरे देश में लागू हुआ, अब यह एक अधिकार है जिसके तहत राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि उनके राज्य में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों और इसके लिए उनसे किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शुल्क नहीं लिया जा सकेगा’। इस ’शिक्षा के अधिकार कानून’ को जिंदा रखने इसे जबरन निजी स्कूलों 25þआरक्षण में थोपा गया ऐसा मेरा मानना है।
शासन ने सभी शासकीय स्कूलों में निगरानी के लिये समिति भी बनाई है जिसका अध्यक्ष और कोई नही क्षेत्र के जनप्रतिनिधि ही होता है लेकिन मजे की बात तो यह है कि समिति स्कूलों के दीवार पर ही बना होता है। यह बात लिखने में मुझे जितनी हसि आ रही उससे ज्यादा शायद आपको पड़ने में आये लेकिन ’ लेकिन यह वास्तविकता है कभी इस समिति का कोई बैठक या समिति से कोई कार्यवाही होते मुझे नही दिखी । दिखी तो केवल शिक्षकों की कमी 5वर्षो में एक बार होने वाली दीवारों की पुताई , खुद चुकी घिसल पट्टी फट चुकी दरी टूट चुका फर्नीचर, सूखा हैंड पम्प और टिपकता छत । हवा से हिलता पंखा बन्द पड़ा ट्यूब लाइट । लेकिन निगरानी बराबर हो रही समिति द्वारा क्योकि उस समिति का अध्यक्ष…………..? चौकिये नही इससे बढ़े झटके देने वाली बात तो यह है कि विद्या के मंदिर में भी भरस्टाचार कमीशनखोरी चरम पर है । सभी शासकीय शिक्षक बनना है क्योंकि सिविलियन जो होना है वेतन में व्रद्धि स्थाई नौकरी बेहतर जीवन लेकिन क्या उन शिक्षकों ने अपने पेशे में सुधार लाया क्या शासकीय स्कूलों में बच्चों की संख्या में बढोत्तरी हुई क्या किसी ने कोई सार्थक प्रयास किया कि बच्चों की संख्या में इजाफा हो सभी शिक्षकों ने घमासान मचाकर अपने जीवन स्तर में तो सुधार लाने में सफल हो गए लेकिन बच्चों के शिक्षा में सुधार लाये या ऐसा ही रहा तो शायद स्थिति ऐसे निर्मित हो जाये कि बच्चे अनशन करना शुरू करे योग्य शिक्षकों के मांग को लेकर चले वो भी विधानसभा और मुख्यमंत्री निवास का घेराव करने । यदि सिविलियन घोषित करना ही था तो उसके लिये सासन को शर्त रखनी थी कि जिन शिक्षकों के बच्चे शासकीय स्कूलों में अध्ययन करेंगे सिविलियन उन्ही शिक्षकों को मिलेगा । ’शासकीय या सविंदा नौकरी प्रशासनिक अधिकारी हो या सविंदा कर्मचारी पदासीन हो या दौड़ में बच्चे पड़ेंगे सरकारी स्कूल में’ हो फिर शायद बिना किसी सवाल के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर बढेगा । आज के लिये इतना ही जाते जाते एक वास्तविकता से परिचय करवाना चाहूंगा । इस लेख को लिखने वाला छापने वाले और पढ़ने वाले सभी के बच्चे निजी स्कूल में सिवाए इस अखबार को बाटने वाले के बच्चे के अलावा। ’अब इसे क्या कहे साहब मजबूरी या मानसिकता’………………❓

शंकर प्रसाद 
कल्याण सचिव अंतरास्ट्रीय मानवाधिकार एसोसिएशन

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