जेएनयू उबल रहा है। पूरा देश उसके साथ उबल रहा है। जेएनयू के साथ केवल वहां का छात्र समुदाय नहीं, केवल जेएनयू के कर्मचारी और शिक्षक समुदाय नहीं, पूरे देश के छात्र हैं। हर वह नागरिक, जो अपने बच्चों के लिए पढ़ने-लिखने, सस्ती शिक्षा पाने, विरोध और अभिव्यक्ति के अधिकार को और इस देश के हर नागरिक के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार को सुरक्षित रखने का पक्षधर है, जेएनयू के साथ है।
21 नवम्बर की रात मुझे अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव बादल सरोज और मध्यप्रदेश किसान सभा के नेता अशोक तिवारी के साथ जेएनयू जाने का मौका मिला। नई शिक्षा नीति पर बोलने के लिए बादलजी को आमंत्रित किया था वहां की स्टूडेंट्स यूनियन ने। हमने स्वामी विवेकानंद की उस प्रतिमा को देखा, जिसे संघी गिरोह ने ही रात के अंधेरे में अपवित्र कर उसका दोष वहां के आंदोलनरत छात्रों पर मढ़ने की चाल चली थी, लेकिन असफल रहे। जेएनयू के पूरे छात्र समुदाय और छात्र संघ ने इस कृत्य की एक स्वर से निंदा की।
यह मेरे जीवन का पहला मौका था यह देखने का कि किसी विश्वविद्यालय के छात्र किस तरह रात 10 बजे हमारा बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। फ्रीडम स्क्वायर पर सैकड़ों छात्र बिखरे हुए थे -- बहुत-से कॉपी-किताब-नेट के सहारे अपनी पढ़ाई कर रहे थे, कुछ अपने समूह बनाकर विभिन्न विषयों पर बहस कर रहे थे, कुछ छात्रों का समूह रात की ठंड से लड़ते हुए आग ताप रहा था, कुछ गा-बजा कर माहौल को संगीतमय बना रहे थे अपने सुखद भविष्य की आश्वस्ति देते हुए। एक बोर्ड आईसा, एसएफआई, एआईएसएफ और अन्यान्य संगठनों के पोस्टर/स्लोगनों से पटा पड़ा था। जय भीम के साथ लाल सलाम के नारे भी चमक रहे थे। इतनी और ऐसी चहल-पहल यहां रोज रहती है। जब देश सोता है, तब भी जेएनयू जागता रहता है।
लेकिन जेएनयू का जागना इस देश के सत्ताधारियों को पसंद नहीं है। वे जेएनयू को सुलाने के लिए हर किस्म की जोर-आजमाईश करते रहते हैं। यह आजमाईश वहां के छात्रों और छात्र संघ दोनों के खिलाफ होती है। जेएनयू विश्व के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में से एक है, लेकिन कभी इसे आतंकवादियों के अड्डे के रूप में प्रचारित किया गया, कभी नशेड़ियों का गढ़ बताया गया और कभी इस संस्थान को बंद करने की धमकी दी गई और कभी छात्रों के हाथ-पैर तोड़कर उन्हें जेलों में ठूंसा गया। लेकिन फिर भी जेएनयू जागता रहा, जेएनयू मानवीय मूल्यों को स्थापित करता रहा, जेएनयू अकादमिक रिकॉर्ड बनाते रहा, जेएनयू नोबल पुरस्कार जीतता रहा, जेएनयू उच्च प्रशासनिक दक्षता का परिचय देता रहा। जेएनयू निष्कृष्टताओं की बेशर्म साजिशों के बीच उत्कृष्टता का प्रदर्शन करता रहा। संघी गिरोह के लिए, जो आज जेएनयू को नेस्तनाबूद करना चाहते हैं, यह आज हताशा और निराशा का कारण है। संघी गिरोह की सांप्रदायिक और हिंदुत्ववादी नीतियों को यहीं से सबसे बड़ी चुनौती मिल रही है, क्योंकि अपने नाम के अनुरूप यह लोकतांत्रिक चेतना का गढ़ बन गया है।
लेकिन लोकतंत्र के इस गढ़ में इतना अलोकतांत्रिक कुलपति! जिसका काम शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना है, वह शिक्षा-शिक्षकों-छात्रों के खिलाफ केवल और केवल षड़यंत्र रचने में मशगूल!! जिस कुलपति के कक्ष के दरवाजे चिल्ला-चिल्लाकर उसे रिजेक्ट कर रहे हो, जिस विश्वविद्यालय की दीवारें उससे इस्तीफा मांग रही हो, जिसे पूरा अकादमिक समुदाय संघी गिरोह का *दलाल* मात्र बता रहा हो, वह कुलपति चादर ओढ़े सोता रहे, इससे ज्यादा बेशर्मी की बात और क्या हो सकती है! लेकिन ऐसी बेशर्मी के लिए संघी दिमाग होना चाहिए, जो लोकतंत्र पर नहीं, केवल फासीवाद पर विश्वास करें। जो फासीवाद पर विश्वास करेगा, वही कई-कई गुना हुई फीस वृद्धि के खिलाफ चल रहे आंदोलन को कुचलने के लिए लाठियों-पानी की बौछारों-गिरफ्तारियों का इस्तेमाल करेगा, समर्थन करेगा और अपने षडयंत्र-भवन में दब्बू की तरह बैठे रहेगा।
लेकिन क्या ऐसे षड़यंत्रों के बल पर जेएनयू को कुचला जा सकता है?
नहीं नहीं बिल्कुल नहीं!!
21नवम्बर रात का यही जवाब_है!!