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वन अधिकार आंदोलन से जुड़े 200 से ज्यादा किसानों, आदिवासियों व दलितों से जुड़े संगठन जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया

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आज 21 नवम्बर को अखिल भारतीय किसान सभा और आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच सहित भूमि व  वन अधिकार आंदोलन से जुड़े 200 से ज्यादा किसानों, आदिवासियों व दलितों से जुड़े संगठन जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया। संसद पर हो रहे इस प्रदर्शन में पूरे देश से आये हजारों आदिवासी और किसानों ने हिस्सा लेंगे। इस प्रदर्शन में शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के सरगुजा, सूरजपुर, कोरबा, बिलासपुर, चांपा जिलों से आये छत्तीसगढ़ किसान सभा और आदिवासी एकता महासभा से जुड़े 500 से ज्यादा लोग अभी तक दिल्ली पहुंच चुके हैं। प्रदर्शन का नेतृत्व संजय पराते, कपिल पैकरा, कृष्ण कुमार, राकेश चौहान, सुखरंजन नंदी आदि ने किया।

आदिवासियों और किसानों की विशाल सभा को संबोधित करते हुए भूमि अधिकार आंदोलन और किसान सभा के नेता हन्नान मोल्ला ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि पर काबिज आदिवासियों की बेदखली का जो आदेश दिया है, वह वापस लिया जाए। इस आदेश के कारण छत्तीसगढ़ के 25 लाख आदिवासियों सहित पूरे देश के 1.5 करोड़ आदिवासियों को बेदखली का सामना करना पड़ेगा। वनाधिकार कानून की धारा 4(5) तब तक बेदखली की प्रक्रिया को रोकने का प्रावधान करता है, जब तक कि किसी क्षेत्र-विशेष में इस कानून के पालन की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती। इसलिए इस आदेश को अपास्त करने के लिए केंद्र की मोदी सरकार अध्यादेश लाये। उन्होंने कहा कि आदिवासी वनाधिकार कानून में वनभूमि पर काबिज आदिवासियों की बेदखली का कोई प्रावधान नहीं है। यह कानून वर्तमान में सभी वन व पर्यावरण कानूनों से ऊपर है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश गैर-कानूनी है और आदिवासियों के साथ दूसरा 'ऐतिहासिक अन्याय' करने जा रहा है। लेकिन मोदी सरकार की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के कारण केंद्र सरकार का वकील सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों के पक्ष में खड़ा नहीं हो रहा है। हमारी मांग है कि आदिवासियों के वनाधिकारों को लागू करने के प्रति केंद्र सरकार गंभीरता से पहल करें और सभी पात्र लोगों को व्यक्तिगत और सामुदायिक उपभोग के पट्टे दें।

आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच की नेता व पूर्व राज्यसभा सांसद वृंदा करात ने आरोप लगाया कि निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों पर चलने के कारण मोदी सरकार जल, जंगल, जमीन, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को कॉर्पोरेटों को उनके मुनाफे के लिए सौंपना चाहती है। इसलिए आदिवासियों से जबरन छीनी गई उस भूमि को भी वापस नहीं करना चाहती, जिसे उद्योगों के नाम पर 5 साल से ज्यादा समय से हड़प कर लिया गया है। भूमि अधिग्रहण कानून के अनुसार इस भूमि को मूल भूस्वामी किसानों को लौटाया जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ आदिवासी एकता महासभा के नेता कृष्णकुमार ने बताया कि कुस तरह छत्तीसगढ़ में आदिवासी क्षेत्रों में खनिज संसाधनों को कॉर्पोरेटों को सौंपा जा रहा है। उन्होंने कहा कि अडानी द्वारा सरगुजा के हसदेव अरण्य में कोयला खनन,  बस्तर के बैलाडीला क्षेत्र लौह-अयस्क के खनन और बार नवापारा में शेर अभयारण्य से हो रहे विस्थापन के खिलाफ केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों के खिलाफ आदिवासियों का प्रतिरोध आंदोलन जारी है, जिसकी गूंज पूरे देश में हो रही है। इस खनन के कारण न केवल हजारों आदिवासी परिवार बेदखल होंगे, बल्कि उनकी समूची संस्कृति और अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। उन्होंने कहा कि विकास के नाम पर बनाई जा रही ऐसी सभी परियोजनाओं पर रोक लगाई जानी चाहिए।

छत्तीसगढ़ किसान सभा के नेता संजय पराते ने कहा कि ग्राम सभा की सर्वोच्चता को मान्यता देते हुए, आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए पेसा कानून और 5वीं अनुसूची में प्रावधान किए गए हैं, लेकिन इन्हें आज तक लागू नहीं किया गया है। इन्हें लागू किया जाएं और भूमि अधिग्रहण संबंधी सभी मामलों में बिना किसी दबाव के ग्राम सभा की सहमति प्राप्त करना अनिवार्य किया जाए। विस्थापित आदिवासी परिवारों का पूर्ण पुनर्वास किया जाए, उन्हें मुआवजा और नौकरी दी जाए।

कपिल पैकरा ने मांग की कि वन अधिकार कानून में प्रस्तावित संशोधनों को वापस लिए जाने की घोषणा के अनुरूप केंद्र सरकार इस संबंध में तुरंत नोटिफिकेशन जारी करें।

किसान नेता सुखरंजन नंदी ने कहा कि पूरे देश के आदिवासी बैंकिंग कर्ज़ से ज्यादा साहूकारी कर्ज़ में डूबे हुए हैं। वे साहूकारों को 120 से 240% तक वार्षिक ब्याज देने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के किसानों पर चढ़े कुल कर्ज़ का 55% महाजनों, निजी बैंकों और स्व-सहायता समूहों से लिया गया कर्ज़ है। इसलिए सरकारी और सहकारी बैंकों से लिये गए कर्ज़ माफी की घोषणा का उन्हें विशेष फायदा नहीं होता। केंद्र सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिससे आदिवासी बैंकिंग और साहूकारी कर्ज़ से मुक्त हो सके।

आंदोलनकारी आदिवासी और किसान नेताओं ने कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट और सरकार वनाधिकार कानून को लागू नहीं करती, तो संसद के अंदर और बाहर संघर्ष को तेज किया जाएगा और वे किसी भी हालत में अपने कब्जे की वनभूमि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

                                                

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