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जब भी छत पर तू अपनी जाया कर, आसमाँ से नज़र मिलाया कर।

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जब भी छत पर तू अपनी जाया कर,

आसमाँ से नज़र मिलाया कर।

 

आग उगले है सर पे ये सूरज,

इस तपिश में भी गुनगुनाया कर।

 

धन ही सब कुछ नहीं है जीवन में,

नेकियां भी तो कुछ कमाया कर।

 

इन नक़ाबों के रंग फीके हैं

रंग अपना मुझे दिखाया कर।

 

खेलने हैं अभी कई नाटक,

रोते -रोते भी खिलखिलाया कर।

 

साझा करके तू अपने ग़म उनसे

यूँ भी अपनों को आज़माया कर।

 

याद करके तू पिछली बातों को,

ख़ुद को इतना भी मत रुलाया कर।

 

नासमझ हसरतों को करके मुआफ़

उनकी भूलों को भूल जाया कर।

 

रेत पर मैं लिखी इबारत हूँ,

मुझको ऐसे न तू मिटाया कर।

  

         डॉ सीमा विजयवर्गीय

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