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मरणासन्न पूंजीवाद ने खुद को बचाये रखने के लिए, राष्ट्रीय राज्यों को न सिर्फ गृह कलह/गृहयुद्धों में फँसा दिया है बल्कि पूरी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर ला पटका है:राम कुमार सविता

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राम कुमार सविता 


हमारा समय पूंजीवादी राजनीति के पतन पराकाष्ठा का समय है। मरणासन्न पूंजीवाद ने खुद को बचाये रखने के लिए, राष्ट्रीय राज्यों को न सिर्फ गृह कलह/गृहयुद्धों में फँसा दिया है बल्कि पूरी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर ला पटका है। 

साम्राज्यवादी पूंजीवाद के इस दौर में औद्योगिक/व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा कब की मर-खप चुकी है। पूँजी के भूमंडलीकरण ने जहाँ एक तरफ, उत्पादन एवं सेवा क्षेत्र के बिखरे हुए कारोबार को चंद इजारेदारियों के हाथों में समेट दिया है, वहीँ दूसरी ओर मजदूरवर्ग की अंतर्राष्ट्रीयता को और अधिक मजबूत करके पूंजीवाद के मुख्य विरोध को और अधिक तेज, व्यापक एवं संगठित कर दिया है। दुनिया के औद्योगिक/व्यावसायिक साम्राज्य के अधिकतम हिस्सों पर एवं राष्ट्रीय-राज्यों की सत्ताओं पर पूर्ण नियंत्रण के बाबजूद ये इजारेदार घराने, इतिहास के गंभीरतम संकट से घिरे, मौत के कगार पर खड़े हैं। इन्हे मुनाफा कमाने और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, छल-प्रपंच, घपलों-घोटालों, गुंडई-हिंसा, सांप्रदायिक कट्टरतावाद यहाँ तक कि फासीवाद तक का सहारा लेना पड़ रहा है। राजकीय संरक्षण के बाबजूद दिवालिया होना इजारेदारियों की नियति बन गयी है। वैश्विक स्तर पर संकट से घिरे 'वित्तीय-अल्पतंत्र' के हित में राष्ट्रीय-राज्यों को अपनी-अपनी सीमाओं में पैदा हुई इजारेदारियों को बचाने के लिए प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। राज्य, इजारेदारियों की उन सभी कठिनाइयों को नियंत्रित कर रहा है, जो इन इजारेदारियों के बूते के बाहर हैं। आज इजारेदारियों और राज्य की शक्तियों का एकीकरण हो चुका है। इजारेदारियों के हितों के अधीन काम करते हुए, उन्हें सस्ता वित्त, श्रम, ईंधन, बिजली, भाड़ा और प्राकृतिक-सम्पदा पर्याप्त मात्र में मुहैया कराना, राज्य का मुख्य कार्यभार है, और इसकी क्षतिपूर्ति के रूप में बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग के निजी एवं सामाजिक हितों पर कुठाराघात किया जा रहा है, जिसके परिणाम स्वरुप मेहनतकशों की जीवन स्थितियां बद से बदतर होती जा रहीं हैं। 

मौजूदा पूँजीवाद 'राजकीय इजारेदार पूँजीवाद' है, जो पूँजीवाद का अंतिम पायदान है, यह समाजवाद में प्रवेश की चेतावनी है, यहाँ ठहर कर प्रतीक्षा करना अंधे कुंए में गिरने के सामान है। 

यदि भारतीय सन्दर्भ में पूँजी की सत्ता के राजनैतिक पतन को देखें तो साफ़ नज़र आता है कि बुर्जुआ शासक वर्ग ने चौतरफा बेतहाशा लूट के लिए जिस भगवा फासीवादी दल को अपना राजनैतिक प्रतिनिधि नियुक्त किया है, उस भगवा सरकार में एक तरफ नेतृत्व बेहद बर्बर, हिंसक और बेरहम है तो दूसरी ओर उसके दरबारी- सांसद/विधायक पल्ले दर्जे के भांड-मिरासी, जोकर और गंवार हैं।

मृतप्राय विपक्ष के चलते फासिस्ट भाजपा सरकार को बाहर से तो कोई खतरा है ही नहीं, साथ ही इन बेशर्म दरबारी जोकरों के रहते अंदर से भी कोई खतरा नहीं है।

बुर्जुआ विपक्ष मर चुका है, भारत के राजनैतिक परिदृश्य में फासिस्ट भाजपा, पूँजी की एकमात्र राजनैतिक प्रतिनिधि बची है, कांग्रेस व स्तालिनवादी वामपंथियों सहित अन्य विपक्षी दल, समय-समय पर अपने पराजित विरोध के द्वारा इसकी नीतियों एवं उनके परिणामों को सही ही ठहराते हैं।

यदि, सर्वहारा तथा अन्य मेहनतकश तबकों (जिनके हित एवं आदर्श सर्वहारा के हित एवं आदर्शों से मेल खाते हैं) ने एकजुट होकर अभी इसे परास्त न किया तो कांग्रेस की तरह एक लम्बी पारी खेलने से फासिस्ट भाजपा को रोका नहीं जा सकेगा।

ऐसे में मार्क्स-लेनिन-ट्रोट्स्की की क्रन्तिकारी शिक्षाओं से लैस, असीम-शक्ति संपन्न पूँजीवाद का घोर शत्रु- विश्व सर्वहारा ही एकमात्र मुक्तिदाता है!

सर्वहारा की असीम-शक्ति और उसकी महत्ता को समझने के लिए पहले "मानव श्रम" की महत्ता को समझना होगा। 

मानव श्रम", वह मूलाधार है, जिस पर समाज का सम्पूर्ण अस्तित्व टिका हुआ है, यह ऐसा तत्व है जो सामाजिक विकास प्रक्रिया में अनिवार्यता विद्यमान रहता हैं। श्रम, मानव स्वाभाव की विशेषता है और मानव जीवन की एक स्वाभाविक अवस्था है। समाज, ऐतिहासिक विकास यात्रा में एक के बाद दूसरी सामाजिक अवस्था में परिवर्तित होता हुआ आगे बढ़ता रहता है, परन्तु मानव श्रम प्रत्येक सामाजिक ढांचे में, उसके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त के रूप में विद्यमान रहता है। मानव श्रम, समाज के अस्तित्व को बचाये रखने एवं उसके निरंतर विकास, के उद्देश्य को समर्पित ऐसा कार्यकलाप है, जिसके भरोसे मनुष्य, आदिम समाज से लेकर आज के विकसित समाज तक, निरंतर प्रकृति से संघर्ष करता चला आ रहा है। 

कभी प्रकृति के रहस्यों से भयभीत रहने वाला मनुष्य, श्रम की बदौलत ही निरंतर संघर्ष करते हुए प्रकृति पर काफी हद तक विजय प्राप्त कर चुका है, और यह विजय यात्रा निरंतर जारी है। श्रम, जड़ मानवीय क्रिया तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पशु-शक्ति से लेकर परमाणु-शक्ति एवं अन्य विभिन्न प्राकृतिक/कृत्रिम शक्तियों को उपयोग में लाकर श्रम को और अधिक उत्पादक एवं सरल बनाने की प्रेरणा भी देता है। 

श्रम, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने मानव जाति को पशु जगत से अलग करके आज के विशिष्ट-श्रेष्ठ, एकताबद्ध, भौतिक एवं बौद्धिक रूप से समृद्ध विकसित समाज में परिवर्तित किया है। 

आज विज्ञान एवं तकनीक के अभूतपूर्व विकास तथा "मानव श्रम" द्वारा तैयार की गयी अपार उत्पादन शक्तियों की मौजूदगी के बाबजूद करोड़ों इंसान दरिद्रता में जीने को मजबूर हैं, चंद धनकुबेरों और उनके लगुओं-भगुओं को छोड़ कर शेष आबादी भौतिक एवं बौद्धिक समृद्धि के लाभ से बंचित है, इसका कारण है पूंजीवादी व्यवस्था। 

"मानव श्रम" द्वारा तैयार की गयी अपार उत्पादन शक्तियों तथा विकसित विज्ञान एवं तकनीक को पूँजी के चुंगुल से मुक्त करके और उन्हें पूरे समाज के उपकार में प्रयुक्त कर एक स्वस्थ-सुन्दर-खुशहाल संसार बनाने का महती कार्यभार मार्क्स-लेनिन की शिक्षाओं (वैज्ञानिक कम्युनिज्म) से युक्त पार्टी के नेतृत्व में मजदूर वर्ग द्वारा निर्देशित समाजवादी क्रांति द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। 

अब हमारे सामने सिर्फ दो ही रास्ते हैं- सर्वहारा समाजवादी क्रांति या सर्वनाश!

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