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भूत-भविष्य को बिसार वर्तमान में जीना सीख लें : सागर महाराज

जिनकुशल सूरि जैन दादाबाड़ी में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला

रायपुर- जिनकुशल सूरि जैन दादाबाड़ी, महात्मा गांधी रोड में चातुर्मासिक प्रवचन के अंतर्गत बुधवार को नवपदजी की आराधना के चौथे साधु पद विषय पर महेन्द्र सागरजी महाराज साहब ने कहा कि वैराग्यवासी साधु भगवंतों की जीवन शैली से सद्गुणों को अपनाकर हम भूत व भविष्य को बिसार कर वर्तमान में जीना सीख लें। जिस प्रकार साधु वर्तमान में आनंद से जीते हैं, वैसे ही आप भी वर्तमान में जीवन जीना सीख लें। अरिहंत व सिद्ध परमात्मा स्वयं को पूरी तरह निर्भार होकर जीते हैं। वहीं आचार्य, उपाध्याय, साधु ये सब भार उतारकर जीवन जीते हैं। उनकी और आपकी आत्मा एक समान है, किन्तु अंतर केवल जीवन शैली में है। वे अपने भीतर के आनंद की प्राप्ति में सफल हो जाते हैं या अनवरत् अंतरआनंद की प्राप्ति की साधना में लीन रहते हैं और आप आनंद को बाहर खोजते हैं। बाहर की समस्त चिंताओं, समस्याओं के भार को जब आप छोड़ देंगे तो आनंदित हो जाएंगे, आप भारपूर्वक जीते हैं इसीलिए दुखी हैं।  

पूज्य गुरू भगवंत ने आगे कहा कि बाहर की वस्तुओं, व्यक्तियों में सुख की चाह रखकर आप उनके संयोग और वियोग में सुखी-दुखी होते रहते हैं। मोह के वशीभूत होकर सुख पाने की कल्पना में आप स्वयं को ही दुखी कर लेते हैं। संसार का क्षणिक सुख, वास्तविक सुख नहीं है, वह केवल आपकी कोरी कल्पना या भ्रम मात्र है। संसार के क्षणिक सुखों की चाह में स्वयं को दुखी करने की अपेक्षा आपकी सोच यही होनी चाहिए कि ये संसार के सुख आते-जाते रहेंगे, आपके पुण्य का जब उदय होगा तो वे क्षणिक सुख स्वत: ही मिल जाएंगे। उनके लिए भूत और भविष्य में जाकर आप व्यर्थ की चिंता क्यों करते हैं। आपका मन कभी भूत में तो कभी भविष्य में उलझ जाता है, यही कारण है कि आपका ध्यान पंच परमेष्ठी भगवंतों की आराधना में लगता नहीं है। भूतकाल की घटनाओं, बातों को चाहे जितना सोच लो, कुछ हासिल होने वाला नहीं है और भविष्य में भी जो होना होगा वहीं होगा आपके वश में वह भी नहीं है। इसीलिए भूत-भविष्य के फेर में पडक़र आप अपने वर्तमान के आनंद को व्यर्थ ही न गंवाएं। अध्यात्मिक दृष्टिकोण से भूत और भविष्य की सोच-सोचकर सुखी और दुखी होना यह एक तरह का पागलपन ही है। आचार्य, उपाध्याय, साधु संसार के समस्त पाप कर्मों को छोडक़र केवल वर्तमान में स्थिर होकर सुखी जीवन जीने का प्रयत्न करते हैं। वर्तमान काल और वर्तमान परिस्थितियों में शांति व सुखपूर्वक कैसे जीया जा सकता है, यह आप साधु से सीख सकते हैं। वे यह जान जाते हैं कि सुख बाहर में नहीं है और बाहर से मुझे कुछ नहीं चाहिए, सुख तो केवल मेरे ही पास है, जो कुछ भी प्राप्त होगा वह केवल वर्तमान में ही होगा। इसीलिए साधुगण अपने जीवन में कल के किसी भी कार्य या वचन के लिए ‘वर्तमान योग’ शब्द का ही उपयोग करते हैं।

गुरू भगवंत ने कहा- जीवन जीने के दो तरीके हैं। एक सुख को बाहर खोजना और दूसरा सुख स्रोत स्वयं को मानना। बाहर से सुखी दिखाने की अपेक्षा आप अंदर से सुखी बनें। मन को नियंत्रित व सकारात्मक बनाएं। भीतर उभरने वाली मिथ्यात्व रूपी समस्याओं को समझकर उनका समाधान उनका निवारण अपने चैतन्य स्वरूप से आपको प्राप्त हो जाएगा। इनमें से किस जीवन शैली को अपनाएं, यह आप पर निर्भर है। सुख और शांति केवल निर्भार होकर जीवन जीने से ही मिलेगी, यही सत्य है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु के निकट जाकर उनके आरंभ, सुख, वैभव को समझें। वे कैसे सुखपूर्वक, आनंद से जीते हैं, वैसा ही हम सब जीने का प्रयत्न-पुरूषार्थ करें।  

चातुर्मास समिति के महासचिव पारस पारख ने बताया कि दोपहर 2 से 4.30 बजे तक जारी बच्चों व युवाओं के ‘संस्कार सृजन शिविर’ का आज पंचम व अंतिम दिवस रहा।  जैन श्वेताम्बर चातुर्मास समिति की ओर से आयोजित इस शिविर में आज विद्यार्थियों सहित उनके माता-पिता भी बड़ी संख्या में शामिल हुए। इस अवसर पर अध्यात्म योगी पूज्य महेन्द्र सागरजी म.सा. एवं युवा मनीषी पूज्य मनीषसागरजी म.सा. ने विद्यार्थियों को सुखी व सफल जीवन जीने की कला पर महत्वपूर्ण सूत्र प्रदान किए। शिविर में बच्चों की अप्रत्याशित व उत्साहजनक उपस्थिति के लिए चातुर्मास समिति की ओर से सभी सहयोगीजनों का आभार-अनुमोदन व्यक्त किया गया। वहीं शास्वत ओली की आराधना का भी आज पांचवा दिन रहा। बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं द्वारा ओली की आराधना सुख-साता पूर्वक चल रही है। आज साधकों को आयम्बिल कराने का लाभ स्वदेश कुमार भरत कुमार जैन परिवार को प्राप्त हुआ। अखंड आयम्बिल के क्रम में आज तपस्विनी श्रीमती शोभा झाबक का संघ की ओर से बहुमान किया गया। आज का आयम्बिल श्रीमती चंद्रकला निम्माणी का रहा एवं कल का आयम्बिल श्रीमती शोभा झाबक का रहेगा।  

 

 

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